Natasha

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राजा की रानी

उसने हँसी की छटा से फाइल को कुछ आगे सरकाते हुए कहा, “लीजिए, मजाक छोड़िए। क्या यह खबर लिये बगैर ही मैं आपके पास आया हूँ कि बड़े साहब बिल्कुेल आपकी मुट्ठी में है? खैर मरने दीजिए इसे, और भी एक दफे वह मेरे पीछे लगकर देख ले। अच्छा, क्या बड़े साहब का 'ऑर्डर' निकालकर आज ही मेरे हाथ नहीं दिया जा सकता? रात के नौ बजे ही मैं चला जाता, रात को कष्ट न उठाना पड़ता। क्या कहते हैं आप?”

मैं एकाएक जवाब न दे सका। क्योंकि, खुशामद चीज ही ऐसी है कि सारी दुरभिसन्धि जान-बूझकर भी क्षुण्ण करते श्लेश का अनुभव होता है। विरुद्ध बात मुँह पर लाते संकोच-सा होने लगा; किन्तु इस बाधा को मैंने नहीं माना। अपने आपको कठोर करके कह ही दिया, “बड़े साहब का हुक्म हाथ में कर लेने से आपको लाभ नहीं होगा। आप और कहीं नौकरी की तलाश कीजिए।”

एक मुहूर्त में ही वह जैसे काठ हो गया और कुछ देर बाद बोला, “इसके मानी?”

“इसके मानी यह कि आपको 'डिसमिस' करने का 'नोट', ही मैं दूँगा। मेरे द्वारा आपको किसी तरह सुविधा न होगी।”

वह उठकर खड़ा हो गया था- एकदम बैठ गया। उसकी दोनों ऑंखें छलछला आईं। हाथ जोड़कर बोला, “बंगाली होकर बंगाली को मत मारिए बाबू, मैं बच्चों कच्चों वाला आदमी मर जाऊँगा।”

“यह देखने का भार मेरे ऊपर नहीं है। इसके सिवाय, मैं आपको जानता नहीं, आपके साहब के विरुद्ध भी मैं नहीं जा सकता।”

उसने एक नजर मेरे मुँह पर डालकर शायद समझ लिया कि मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। और कुछ देर वह चुपचाप बैठा रहा। इसके बाद ही अकस्मात् वह जोर से रो पड़ा। क्लर्क, दरबान, पियून जो जहाँ थे सब इस अचिन्तनीय घटना से दंग हो गये। मैं भी मानो लज्जित-सा हो गया। उसे रोकने के इरादे से मैंने कहा, “अभया आपके लिए बर्मा आई है, अवश्य ही दुश्चरित्रा स्त्री को ग्रहण करने के लिए मैं नहीं कहता। किन्तु, आपकी सब बातें सुनकर भी यदि वह माफ कर सके-आप उसके पास से चिट्ठी ला सकें तो आपकी नौकरी बजा रखने की मैं कोशिश कर देखूँगा। नहीं तो दुबारा मिलकर मुझे लज्जित न करना- मैं मिथ्या बात नहीं कहता।”

मैं जानता था कि ये नीच प्रकृति के लोग अत्यन्त डरपोक होते हैं, उसने ऑंखें पोंछकर कहा, “वह कहाँ पर है?”

“कल इसी समय आओगे तो उसका ठिकाना बता दूँगा।”

वह और कुछ न कहकर लम्बी सलाम करके चला गया।

संध्याि के समय अभया मेरे मुँह से चुपचाप नीचा मुँह किये सारा हाल सुनती रही। उसने ऑंचल से केवल अपनी ऑंखें पोंछ डाली- कुछ कहा नहीं। मेरे क्रोध का भी उसने कुछ जवाब नहीं दिया। बहुत देर बाद मैंने ही पूछा, “आप उसे माफ कर सकेंगी?”

अभया ने केवल गर्दन हिलाकर अपनी सम्मति जाहिर की।

“तुम्हें वह अपने साथ ले जाना चाहे, तो जाओगी?”

उसने उसी तरह सिर हिलाकर जवाब दिया।

“बर्मा की स्त्रियों का स्वभाव कैसा होता है, सो तो तुमने पहले ही दिन खूब जान लिया है, फिर भी वहाँ जाने का तुम्हारा साहस होगा?”

इस दफे अभया ने अपना मुँह ऊपर उठाया, मैंने देखा कि उसकी दोनों ऑंखों से ऑंसुओं की धारा बह रही है। उसने कुछ कहने की कोशिश की परन्तु कह न सकी। इसके बाद बार-बार ऑंचल से अपनी ऑंखों को पोंछती हुई रुद्ध कण्ठ से बोली, “नहीं जाऊँ तो मेरे लिए और उपाय ही क्या है, बताइए?”

उसकी बात सुनकर मैं यह न सोच सका कि मैं खुश होऊँ या ऑंखों से नीर बहाऊँ; किन्तु मुझसे कुछ उत्तर देते नहीं बन पड़ा।

उस दिन और कोई बात नहीं हुई। डेरे को लौटते हुए रास्ते-भर यही एक बात मैं बार-बार अपने आपसे पूछता रहा, किन्तु, इस प्रश्न का किसी ओर से कोई भी उत्तर नहीं मिल सका। केवल हृदय के भीतर का 'वह' न जाने किस पर एक ओर जिस तरह निष्फल क्रोध से जल-जल उठने लगा, उसी तरह दूसरी ओर एक निराश्रया रमणी के उससे भी अधिक निरुपाय प्रश्न से व्यथित और भाराकान्त हो उठा। दूसरे दिन, अभया का ठिकाना पूछने के लिए जब वह मनुष्य सामने आकर खड़ा हो गया तब, मारे घृणा के, मैं उसकी ओर देख भी नहीं सका। मेरे मन का भाव समझकर आज वह अधिक बात किये बगैर ही केवल ठिकाना लेकर नम्रता के साथ चला गया, किन्तु, उसके बाद के दिन जब वह मिलने आया तब उसकी ऑं:खों और मुँह का भाव पूरी तरह बदल गया था। प्रणाम करके उसने अभया के हाथ की एक सतर लिखी हुई मेरी टेबल पर रख दी और कहा, आपने मेरा जो उपकार किया है उसे मुँह से क्या कहूँ- जितने दिन जीऊँगा आपका गुलाम होकर रहूँगा।”

अभया की लिखी पंक्ति पर दृष्टि जमाए हुए ही मैंने कहा, “जाइए, आप अपना काम कीजिए, बड़े साहब ने इस बार माफ कर दिया है।”

उसने हँसकर कहा, “बड़े साहब की चिन्ता मैं नहीं करता, केवल आप क्षमा कर दें तो मैं जी जाऊँ। आपके श्रीचरणों में मैंने बहुत से अपराध किये हैं।” इतना कहकर उसने फिर बकना शुरू कर दिया, उसी किस्म की वैसी ही कोरी मिथ्या खुशामद की बातें। और बीच-बीच में वह रूमाल से ऑंखें भी पोंछने लगा। इतनी बातें सुनने का धीरज और किसी को नहीं हो सकता, इसलिए यह दण्ड मैं आपको नहीं दूँगा। मैं केवल उसका विस्तृत वक्तव्य संक्षेप में कहे देता हूँ। वह यह है कि उसने अपनी स्त्री के ऊपर जो अपवाद लगाया था सो बिल्कुरल ही झूठ है। उसने लज्जा के फेर में पड़कर ही वैसा किया था, नहीं तो ऐसी सती लक्ष्मी क्या कहीं और है! और मन ही मन चिरकाल से वह अभया को प्राणों से भी अधिक चाहता रहा है। तब, यहाँ जो एक और उपसर्ग आ जुटा है उसे जुटाने की उसकी जरा भी इच्छा नहीं थी, केवल बर्मियों के हाथ से अपने प्राण बचाने के लिए ही उसने यह किया है। (कुछ सत्य हो भी सकता है।) किन्तु, आज रात को जब वह अपने घर की लक्ष्मी को ले जा रहा है तब उस बर्मी- बच्ची को दूर करते कितनी देर लगती है? रहे लड़के-बच्चे-ओहो! सालों की जैसी सूरत है वैसा ही स्वभाव है- हैं वे किस काम के? बुढ़ापे में न तो उनसे खाने-पहिनने को ही मिलेगा और न मरने पर एक चुल्लू पानी की ही उनसे आशा है! जाते ही सबको एक साथ झाड़ू मारकर बिदा कर देगा तब उसका नाम- इत्यादि-इत्यादि।

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